हिन्दू धर्म में नदियों और घाटों का विशेष महत्त्व है। हिन्दू मान्यतानुसार हम पूर्णिमा, दशहरा, अमावास आदि पर गंगा स्नान गंगा घाट पर ही करते हैं। मनुष्य के मरने के बाद भी उसके मृतक शरीर को घाट पर ही ले जाया जाता है। इसे ‘शमशान घाट’ कहा जाता है, जहाँ मनुष्य के मरने के बाद, उसके मृतक शरीर को जलाया जाता है और उसकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है। जलने के बाद उसके शरीर की राख को गंगा में बहा दिया जाता है।
‘शमशाना’ (शमशान) शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है। ‘अश्म’ शब्द ‘आसमान’ और ‘शाना’ शब्द ‘शयन’ (विश्राम) को दर्शाता है। सिख, जैन और बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग मृतकों के अंतिम संस्कार के लिए ‘शमशाना’ शब्द का ही प्रयोग करते हैं।
लेकिन इस परंपरा के चलते हमें कई समस्याओं का सामना भी करना पड़ रहा है। कम आयु में मरने वाले बच्चों को हिन्दू मान्यतानुसार जलाया नहीं जाता है, बल्कि उन्हें नदी में बहा दिया जाता है। इसी प्रकार बहुत से जानवरों के मरने पर उन्हें भी पानी में छोड़ दिया जाता है। जिसके चलते जल-प्रदूषण तेजी से फ़ैल रहा है और ऐसे जल का सेवन करने से बीमारियाँ तीव्र गति से गाँव व शहरों में फ़ैल रही हैं।
इस समस्या को ध्यान में रखते हुए सरकार ने ‘इलेक्ट्रिक क्रीमेटोरियम’ (Electric Crematorium) अर्थात बिजली वाले शमशान की शुरुआत की है। इनमें शव को लकड़ियों के सहारे जलाने के बजाय बिजली द्वारा मृत शरीर को जलाया जाता है। गंगा नदी को साफ़ रखने के लिए यह अभियान जनवरी 1989 में ‘गंगा कार्य योजना’ (Ganga Action Plan) के तहत चलाया गया था, जिसके द्वारा हम अपने पर्यावरण को स्वच्छ रख सकें। इसके फायदे अनेक हैं – पेड़ों का बचाव (क्योंकि लकड़ी का उपयोग नहीं करना पड़ता), आर्थिक बचत, जल प्रदूषण में कमी, आदि। अतः समय आ चुका है जब हम अपने सालों पुराने अन्धविश्वास छोड़, आने वाले वर्षों तथा पीढ़ियों के बारे में सोच कर सही कदम उठायें।